जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियल (बर्फीली) झीलों और अन्य जल निकायों के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हो रही है। इनके क्षेत्रफल में यह बढ़ोतरी 2011 से 2024 के बीच 10.81 फीसदी तक जा पहुंची है। इस बढ़ोतरी से झीलों के फटने से आने वाली बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। ये बाढ़ तब आती हैं जब झीलें अपनी प्राकृतिक दीवारों को तोड़कर भारी मात्रा में पानी छोड़ देती हैं। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में झीलों और अन्य जल निकायों का कुल क्षेत्रफल 2011 में 5,33,401 हेक्टेयर था। यह 2024 में 5,91,108 हेक्टेयर तक पहुंच गया है। झीलों का क्षेत्रफल बढ़ने से गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी महत्वपूर्ण नदियों में पानी की मात्रा भी प्रभावित होगी।
पड़ोसी देशों पर भी खतरा
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भूटान, नेपाल और चीन जैसे पड़ोसी देशों में भी ग्लेशियल झीलें साझा नदी प्रणालियों की वजह से खतरा पैदा कर सकती हैं। रिपोर्ट ने इन देशों के साथ मिलकर निगरानी,डाटा साझा करने और संभावित बाढ़ की योजना बनाने की सिफारिश की है। इसके साथ ही शुरुआती चेतावनी प्रणाली बनाने, आपदा प्रबंधन योजनाओं को बढ़ाने और कमजोर आबादी की सुरक्षा के लिए सामुदायिक जागरूकता पहल को बढ़ावा देने में अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहयोग की तत्काल जरूरत बताई है।
ग्लेशियरों का सिकुड़ना
झीलों का विस्तार मुख्य रूप से ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की वजह से हो रहा है। इस परिवर्तन का असर निचले क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों, बुनियादी ढांचे और वन्यजीवों पर हो सकता है। हिमालय में ग्लेशियरों का सिकुड़ना और झीलों का बढ़ना जलवायु परिवर्तन के साफ संकेत हैं। सीडब्ल्यूसी तकनीक को विकसित करने में जुटा है ताकि झीलों से पैदा होने वाले खतरों का जल्द पता लगाया जा सके और उनका प्रभावी तरीके से सामना किया जा सके।
इन झीलों की बारीकी से निगरानी
जल आयोग ने कहा है कि इन झीलों की बारीकी से निगरानी बहुत जरूरी है। इसके लिए सीडब्ल्यूसीसेंटिनल-1 सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) और सेंटिनल-2 मल्टीस्पेक्ट्रल इमेजरी जैसी उन्नत सैटेलाइट तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। यह तकनीक बादलों के मौसम में भी 10 मीटर की सटीकता के साथ झीलों के आकार में बदलाव को माप सकती है। इससे आपदा की वक्त से पहले जानकारी दे सकते हैं।