गवर्नर द्वारा बिलों को मंजूरी देने हेतु टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती: SC

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने 20 नवंबर 2025 को दिए गए एक ऐतिहासिक सलाहकार मत में, स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी भी निश्चित समय-सीमा में विधेयकों पर स्वीकृति देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह निर्णय विधायी तात्कालिकता और संवैधानिक विवेकाधिकार के बीच लंबे समय से चली आ रही बहस को संबोधित करता है और संघीय संतुलन तथा शक्तियों के पृथक्करण को और मजबूत करता है।

कानूनी पृष्ठभूमि

  • अनुच्छेद 200 और 201 क्रमशः यह बताते हैं कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल कैसे संभालते हैं, और राष्ट्रपति उनके लिए सुरक्षित रखे गए विधेयकों पर कैसे निर्णय लेते हैं।
  • अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो वह तीन विकल्पों में से कोई भी चुन सकते हैं—सम्मति देना, सम्मति रोकना और विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजना, या उसे राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रखना।
  • अनुच्छेद 201 के तहत, यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखा गया है, तो राष्ट्रपति सम्मति दे सकते हैं, सम्मति रोक सकते हैं, या विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं।
  • 8 अप्रैल 2025 को स्टेट ऑफ तमिल नाडु बनाम गवर्नर ऑफ तमिल नाडु मामले में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने समयसीमा के रूप में दिशा-निर्देश दिए थे—राज्यपाल के लिए एक माह और राष्ट्रपति के लिए तीन माह—ताकि विधेयकों पर अनिश्चित देरी को रोका जा सके।

हालाँकि, इन समयसीमाओं की वैधता को चुनौती दी गई। इसके बाद राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत अपनी परामर्शात्मक अधिकारिता का उपयोग करते हुए 14 प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय को भेजे, ताकि इस विषय पर संवैधानिक स्पष्टता मिल सके।

अदालत ने क्या निर्णय दिया

20 नवंबर 2025 को सुनाए गए अपने महत्त्वपूर्ण परामर्शात्मक मत में सुप्रीम कोर्ट की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने की, ने सर्वसम्मति से कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपालों या राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर हस्ताक्षर देने के संबंध में कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसलिए न्यायालय भी कोई कठोर समय-सीमा थोप नहीं सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि “यथाशीघ्र” शब्द राज्यपाल पर तत्परता से कार्य करने का दायित्व अवश्य डालता है, लेकिन इसे निश्चित दिनों की अनिवार्य सीमा में बदलना संविधान में न्यायिक संशोधन के समान होगा, जो स्वीकार्य नहीं है। हालांकि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल नहीं सकते, पर इसका समाधान निश्चित समय-सीमा थोपना नहीं, बल्कि आवश्यक होने पर न्यायिक समीक्षा है। अदालत ने दोहराया कि राज्यपाल को ‘वाजिब समय’ में कार्रवाई करनी चाहिए और लंबी देरी होने पर इसे चुनौती दी जा सकती है, किंतु इसे सभी मामलों के लिए सार्वभौमिक समय-सीमा में नहीं बदला जा सकता।

यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है

यह फैसला भारतीय संघवाद के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह राज्यपालों और राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका और विवेकाधिकार की सुरक्षा करता है तथा न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका पर अनावश्यक नियंत्रण को रोकता है। इससे विधायी प्रक्रिया में संतुलन बना रहता है—एक ओर विधेयकों पर समय पर कार्रवाई की आवश्यकता, और दूसरी ओर संवैधानिक सुरक्षा। शासन और जवाबदेही के दृष्टिकोण से भी यह निर्णय अहम है, क्योंकि भले ही निश्चित समय-सीमा तय नहीं की गई, मगर “उचित समय” में कार्रवाई और न्यायिक समीक्षा की उपलब्धता यह सुनिश्चित करती है कि अत्यधिक देरी को चुनौती दी जा सके और इसे असंवैधानिक व्यवहार की तरह देखा जा सके।

मुख्य स्थैतिक तथ्य

  • यह निर्णय 20 नवंबर 2025 को आया।

  • इस मामले की सुनवाई भारत के सुप्रीम कोर्ट की पाँच-न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने की।

  • शामिल प्रावधान: अनुच्छेद 200 (राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति) और अनुच्छेद 201 (राष्ट्रपति द्वारा आरक्षित विधेयकों पर सहमति)।

  • इससे पहले 8 अप्रैल 2025 को दो-न्यायाधीशों की पीठ ने समयसीमा तय की थी (राज्यपाल के लिए एक माह / राष्ट्रपति के लिए तीन माह), लेकिन राष्ट्रपति ने इसे अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सलाह हेतु भेज दिया।

  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सहमति प्रक्रिया में निश्चित समयसीमा केवल संविधान संशोधन से ही तय की जा सकती है, न कि न्यायालय के आदेश से

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vikash

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