डोंगरिया कोंध भारत के संविधान द्वारा संरक्षित विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत हैं। ये मुख्य रूप से ओडिशा राज्य के कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरि पहाड़ियों में निवास करते हैं।
डोंगरिया कोंध एक बहुईश्वरवादी (polytheistic) और प्रकृति-आधारित धार्मिक विश्वास प्रणाली का पालन करते हैं। उनके लिए पहाड़, जंगल और पेड़ केवल प्राकृतिक संरचनाएं नहीं हैं, बल्कि पवित्र देवता हैं जो उनके जीवन की रक्षा और मार्गदर्शन करते हैं। उनका पूर्वजों की पूजा और प्रकृति से जुड़ा आध्यात्मिक जीवन उनके दैनिक आचरण और अनुष्ठान परंपराओं को आकार देता है।
| पहलू | विवरण |
|---|---|
| बोली जाने वाली भाषा | कुई (Kui) – एक मौखिक द्रविड़ भाषा, जो गोंडी से संबंधित है |
| मूल लिपि | कुई की कोई स्वदेशी लिपि नहीं है |
| लिप्यंतरण | कभी-कभी ओड़िया लिपि में लिखा जाता है |
हालांकि कुई भाषा के पास अपनी लिखित लिपि नहीं है, लेकिन यह कथाओं, लोक गीतों और अनुष्ठानिक मंत्रों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप में जीवित है।
डोंगरिया कोंध का पहनावा और स्वरूप उनके सांस्कृतिक गौरव और पहचान का प्रतीक है।
बहुत कम वस्त्र पहनती हैं
धातु की नथें पहनती हैं
शरीर पर गोदना (टैटू) बनवाती हैं
कानों की पूरी रेखा में कई झुमके पहनती हैं
रंग-बिरंगी पगड़ियां और लंगोट पहनते हैं
उनके शरीर पर भी पारंपरिक टैटू होते हैं
पारंपरिक नृत्य और अनुष्ठानों में भाग लेते हैं
इनका पहनावा न केवल उनके वनवासी जीवन के अनुकूल है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक शान का प्रतीक भी है।
डोंगरिया कोंध पोडु खेती (झूम/स्थानांतरित कृषि) करते हैं, जिसमें छोटी-छोटी वन भूमि को साफ़ करके खेती की जाती है।
कोदो-कुटकी जैसे बाजरा
हल्दी
अनानास
पहाड़ी इलाके के अनुरूप अन्य स्थानीय फसलें
इनकी आजीविका का बड़ा हिस्सा वनोपज (NTFPs) पर निर्भर है, जैसे —
औषधीय जड़ी‑बूटियाँ
वन्य फल
शहद
ईंधन‑काष्ठ
ये संसाधन न केवल इनकी अर्थव्यवस्था को बनाए रखते हैं, बल्कि उस पारिस्थितिकी से भी जोड़ते हैं जिसे वे पूजा करते हैं।
एनिमिज़्म (प्रकृति‑पूजा) पर आधारित
प्रकृति के आत्मा, पूर्वजों तथा पवित्र पर्वत‑नदियों में आस्था
इनके अनुष्ठान, नृत्य और मौखिक परंपराएँ सामूहिक आध्यात्मिक जीवन का भाग हैं।
कोवी (Kovi)
कुट्टिया (Kuttia)
लंगुली (Languli)
पेंगा (Penga)
झारनिया (Jharnia)
इन क्लैनों के आधार पर सामाजिक भूमिकाएँ, विवाह रीति‑रिवाज और पारंपरिक नेतृत्व निर्धारित होते हैं।
कथाएँ — पूर्वजों का ज्ञान संरक्षित करती हैं
गीत व नृत्य — हर उत्सव व जीवन‑सूचना में संगत
अनुष्ठान — भूमि, आत्मा और इतिहास से संबंध जोड़ते हैं
इन अभिव्यक्तियों के माध्यम से पहचान व जिजीविषा पीढ़ी‑दर‑पीढ़ी मौखिक परंपरा में संजोई जाती है, बिना लिखित अभिलेखों के।
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