एक दुर्लभ संवैधानिक कदम के तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 का हवाला देते हुए अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्य विधान के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों और आचरण से संबंधित कई कानूनी सवालों पर सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार राय मांगी है। राष्ट्रपति का यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक फैसले से उपजा है जिसमें राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा की गई देरी की आलोचना की गई है।
समाचार में क्यों?
13 मई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी है। यह सलाह राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका से जुड़े 14 संवैधानिक प्रश्नों पर आधारित है। यह कदम तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए 8 अप्रैल 2025 के फैसले के बाद उठाया गया।
राष्ट्रपति संदर्भ के तहत उठाए गए प्रमुख प्रश्न
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जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष अनुच्छेद 200 के अंतर्गत प्रस्तुत किया जाता है, तो उनके पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं?
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क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य होना चाहिए?
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क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा किए गए विवेकाधीन निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं?
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क्या अनुच्छेद 361 (राष्ट्रपति/राज्यपाल को कार्यकाल के दौरान कानूनी कार्यवाही से छूट) न्यायिक समीक्षा से पूर्णतः रोक प्रदान करता है?
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यदि संविधान राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय की समय-सीमा या प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता, तो क्या न्यायालय समय-सीमा और प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है?
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क्या राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 201 के तहत लिए गए निर्णय न्यायिक जांच के अधीन हैं?
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क्या न्यायिक आदेश राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग कैसे और कब करना है, यह निर्देशित कर सकते हैं?
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जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, तो क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेना आवश्यक होता है?
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क्या विधेयक के कानून बनने से पहले ही उसके विषय-वस्तु पर न्यायिक हस्तक्षेप किया जा सकता है?
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क्या न्यायालय अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को प्रतिस्थापित कर सकता है?
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क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक, राज्यपाल की स्वीकृति के बिना भी “प्रचलित कानून” माना जा सकता है?
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क्या सुप्रीम कोर्ट की पीठ को संविधान की व्याख्या संबंधी मामलों को कम से कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष भेजना अनिवार्य है (अनुच्छेद 145(3))?
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क्या अनुच्छेद 142 केवल प्रक्रिया संबंधी कानूनों तक सीमित है या यह मौलिक संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध निर्देश देने की शक्ति भी देता है?
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क्या केंद्र और राज्य के बीच विवादों का निपटारा केवल अनुच्छेद 131 के अंतर्गत मूल वाद द्वारा ही हो सकता है?
पृष्ठभूमि और कारण
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तमिलनाडु सरकार ने एक याचिका दायर कर राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 दोबारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई में देरी को चुनौती दी थी।
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सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए राज्यपाल की निष्क्रियता को असंवैधानिक करार दिया और माना कि विधेयकों को मौन स्वीकृति मिल गई है।
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इस निर्णय ने न्यायिक सक्रियता और कार्यपालिका की सीमा को लेकर संवैधानिक बहस छेड़ दी, जिससे राष्ट्रपति को यह मामला सुप्रीम कोर्ट को भेजना पड़ा।
सांविधानिक प्रावधान
अनुच्छेद | विषय |
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अनुच्छेद 200 | राज्यपाल के पास राज्य विधेयकों पर स्वीकृति, अस्वीकृति या राष्ट्रपति के पास भेजने के विकल्प |
अनुच्छेद 201 | राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका |
अनुच्छेद 143 | राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने का अधिकार |
अनुच्छेद 142 | सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” करने की शक्ति |
अनुच्छेद 145(3) | संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को कम-से-कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनने की व्यवस्था |
अनुच्छेद 361 | राष्ट्रपति और राज्यपाल को कार्यकाल के दौरान कानूनी कार्यवाही से छूट |
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राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधायी प्रक्रिया में भूमिका स्पष्ट करने में मदद करेगा।
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विधेयकों की स्वीकृति को लेकर समयबद्धता तय हो सकती है, जिससे विधायी जड़ता रोकी जा सके।
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कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन पर निर्णय तय करेगा।
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यह फैसला संघीय ढांचे और केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है।