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कुंभ के बारे में पूर्ण जानकारी: ऐतिहासिक महत्व

कुंभ के बारे में पूर्ण जानकारी: ऐतिहासिक महत्व |_2.1
प्रयागराज में ‘कुम्भ’ कानों में पड़ते ही गंगा, यमुना एवं सरस्वती का पावन सुरम्य त्रिवेणी संगम मानसिक पटल पर चमक उठता है। पवित्र संगम स्थल पर विशाल जन सैलाब हिलोरे लेने लगता है और हृदय भक्ति-भाव से विहवल हो उठता है। श्री अखाड़ो के शाही स्नान से लेकर सन्त पंडालों में धार्मिक मंत्रोच्चार, ऋषियों द्वारा सत्य, ज्ञान एवं तत्वमिमांसा के उद्गार, मुग्धकारी संगीत, नादो का समवेत अनहद नाद, संगम में डुबकी से आप्लावित हृदय एवं अनेक देवस्थानो के दिव्य दर्शन प्रयागराज कुम्भ की महिमा भक्तों को निदर्शन कराते हैं

कुम्भ वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का एक प्रतीक है। वर्ष 2017 में यूनेस्को द्वारा कुम्भ को ‘‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’’ की प्रतिनिधि सूची पर मान्यता प्रदान की गयी है। अध्यात्मिकता का ज्ञान समृद्ध करते हुए, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, कर्मकाण्ड, परंपरा और सामाजिक एवं सांस्कृतिक पद्धतियों एवं व्यवहार को प्रयागराज का कुम्भ प्रदर्शित करता है.यह दुनिया भर में कुंभ के महत्व को दर्शाता है.प्रयाग में कुंभ मेला कई कारणों से अन्य स्थानों पर कुंभ की तुलना में बहुत अलग है.सबसे पहला, यहाँ लंबे समय तक कल्पवास की परंपरा केवल प्रयाग में प्रचलित है.दूसरा, त्रिवेणी संगम को कुछ शास्त्रों में पृथ्वी का केंद्र माना जाता है.तीसरा, भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के लिए यहां यज्ञ किया था.प्रयागराज को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि प्रयागराज में अनुष्ठान और तप करने का महत्व सभी तीर्थों में सबसे अधिक है और सबसे बड़ा पुण्य प्रदान करता है.प्रयाग में कुंभ मेला लगभग 55 दिनों का होता है, जो सांगम क्षेत्र के आसपास हजारों हेक्टेयर में फैला हुआ है, और दुनिया में सबसे बड़ा पंचांग शहर बन जाता है.
पौराणिक महत्व:
परम्परा कुंभ मेला के मूल को 8वी शताब्दी के महान दार्शनिक शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान सन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की। कुंभ मेला की आधारभूत किवदंती पुराणों (किंबदंती एवं श्रुत का संग्रह) को अनुयोजित है-यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरूण को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी।
शब्द ‘कुंभ’मूल रूप से ‘कुंभक'(अमृत के पवित्र घड़े) से आया है. ऋग्वेद में ‘कुंभ’और इससे जुड़े स्नान अनुष्ठान का उल्लेख है. यह इस अवधि के दौरान संगम पर स्नान के लाभों, नकारात्मक प्रभावों को समाप्त करने और मन और आत्मा के कायाकल्प की बात करता है. ‘कुंभ’ के लिए प्रार्थनाएँ अथर्ववेद और यजुर वेद में भी व्यक्त की गई हैं.
ज्योतिषीय महत्व:
हिंदू पौराणिक कथाओं में सबसे प्रसिद्ध घटना में से एक, भगवद पुराण में वर्णित समुद्र मंथन की कहानी के अनुसार खगोलीय पिंडों के पवित्र संरेखण सीधे कुंभ पर्व से संबंधित हैं. अमृत को स्वर्ग तक ले जाने में 12 दिव्य दिन लगे थे. देवताओं का एक दिव्य दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, स्वर्ग की यात्रा मानव की शर्तों में 12 वर्षों का प्रतीक है. यही कारण है कि हर बारहवें वर्ष माघ के महीने में अमावस्या के दिन जब बृहस्पति मेष नक्षत्र में प्रवेश करता है, तो कुंभ उत्सव का आयोजन किया जाता है.

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