भारत दिग्गज फिल्मकार धुंडीराज गोविंद फाल्के की 30 अप्रैल 2025 को 155वीं जयंती मना रहा है, जिन्हें श्रद्धापूर्वक भारतीय सिनेमा के जनक कहा जाता है। एक ऐसे दौर में जब देश में फिल्म निर्माण की कल्पना भी नहीं की जाती थी, दादासाहेब फाल्के ने अपने अद्भुत दृष्टिकोण, दृढ़ निश्चय और साहस के बल पर भारत की पहली पूर्ण लंबाई की फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र (1913) का निर्माण किया। उनकी इस ऐतिहासिक पहल ने भारतीय फिल्म उद्योग की नींव रखी, जो आज विश्व के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में से एक बन चुका है।
प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा
1860 में महाराष्ट्र के त्र्यंबक में जन्मे धुंडीराज गोविंद फाल्के, जिन्हें हम दादासाहेब फाल्के के नाम से जानते हैं, बचपन से ही कला और फोटोग्राफी में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने बॉम्बे (अब मुंबई) के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षण प्राप्त किया और बाद में चित्रकला, प्रिंटिंग और रंगमंच जैसी कई विधाओं में हाथ आजमाया।
1910 में जब उन्होंने मूक फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखी, तो उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। फिल्म के दृश्यों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया और उन्होंने ठान लिया कि भारतीय पौराणिक कहानियों को भी इसी तरह बड़े पर्दे पर लाया जाना चाहिए। यही विचार आगे चलकर भारतीय सिनेमा के पहले मील के पत्थर की नींव बना।
फिल्म निर्माण सीखने का जोखिम भरा मिशन
उस समय सिनेमा पूरी तरह पश्चिमी देशों के प्रभाव में था और भारत के लिए यह एक अपरिचित माध्यम था। तकनीकी जानकारी की आवश्यकता को महसूस करते हुए फाल्के 1912 में इंग्लैंड गए—यह कदम उन्होंने बेहद सीमित संसाधनों और बिना किसी समर्थन के उठाया।
वहां उन्होंने फिल्म उद्योग के विशेषज्ञों से मुलाकात की, कैमरा और कच्ची फिल्म रीलों सहित आवश्यक उपकरण खरीदे और फिल्म निर्माण की तकनीकी जानकारी प्राप्त की। जब वह भारत लौटे, तो उनके पास न केवल उपकरण थे, बल्कि एक नया आत्मविश्वास और ज्ञान भी था, जिससे वे इस ऐतिहासिक सफर की शुरुआत कर सके।
राजा हरिश्चंद्र का निर्माण: संघर्षों से भरी यात्रा
राजा हरिश्चंद्र का निर्माण आसान नहीं था। फाल्के को सामाजिक, आर्थिक और प्रबंधन संबंधी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
आर्थिक कठिनाइयाँ
इस नए प्रयोग को कोई निवेशक समर्थन देने को तैयार नहीं था। फाल्के ने अपनी बीमा पॉलिसी गिरवी रखी और अपनी पत्नी सरस्वती के गहने तक बेच दिए। उनकी ये निजी कुर्बानियाँ उनके अदम्य संकल्प का प्रमाण हैं।
सामाजिक वर्जनाएँ और कलाकारों की कमी
1913 में भारत में अभिनय को सामाजिक रूप से हेय दृष्टि से देखा जाता था, खासकर महिलाओं के लिए। कोई महिला स्क्रीन पर आने को तैयार नहीं थी, जिससे फाल्के को महिला किरदारों के लिए पुरुष कलाकारों को लेना पड़ा। रानी तारामती की भूमिका अन्ना सालुंके नामक एक युवक ने निभाई, जो उस समय एक वेटर के रूप में काम करता था।
फाल्के ने अपने कलाकारों को खुद प्रशिक्षण दिया, अक्सर समाज की आलोचना और उपहास का सामना करते हुए। फिर भी उनकी टीम उनके जुनून और कहानी कहने की कला से प्रेरित होकर डटी रही।
राजा हरिश्चंद्र (1913): भारत की पहली फीचर फिल्म
कई महीनों की मेहनत के बाद राजा हरिश्चंद्र 3 मई 1913 को बॉम्बे के कोरोनेशन सिनेमैटोग्राफ में प्रदर्शित हुई। यह एक मूक, श्वेत-श्याम फिल्म थी, जो राजा हरिश्चंद्र की पौराणिक कथा पर आधारित थी—जो सत्य और बलिदान के प्रतीक माने जाते हैं।
यह फिल्म दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गई। इसकी सफलता केवल व्यावसायिक नहीं थी, बल्कि यह भारतीय सिनेमा के जन्म की घोषणा थी। पहली बार भारतीयों ने अपनी पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक पहचान को बड़े पर्दे पर देखा।
भारतीय सिनेमा पर फाल्के की अमिट छाप
राजा हरिश्चंद्र की सफलता के बाद फाल्के ने अपने करियर में 90 से अधिक फिल्में और 26 लघु फीचर बनाए। उन्होंने भारतीय फिल्मकारों के लिए तकनीकी और कथा की मजबूत नींव रखी। उन्होंने कैमरा ट्रिक्स, भव्य सेट डिज़ाइन और एडिटिंग की तकनीकों का उपयोग किया जो उस युग से काफी आगे थीं।
1969 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार की शुरुआत की, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है और जीवन भर के योगदान के लिए दिया जाता है।
आधुनिक श्रद्धांजलियाँ और उत्सव
दादासाहेब फाल्के की विरासत को सम्मानित करते हुए 30 अप्रैल 2025 को दिल्ली-एनसीआर में 15वां दादासाहेब फाल्के फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया जा रहा है। यह महोत्सव सिनेमाई उत्कृष्टता का उत्सव है और नई पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए प्रेरणा स्रोत भी।