भारतीय जनता पार्टी के सांसद किरोड़ी साल मीणा ने राज्यसभा में भारी हंगामे के बीच समान नागरिक संहिता विधेयक पेश किया। इसका विपक्ष ने विरोध किया। विधेयक के पक्ष में 63 तो विपक्ष में 23 मत पड़े।
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समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिए एक कानून सुनिश्चित करेगी, जो सभी धार्मिक और आदिवासी समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे संपत्ति, विवाह, विरासत और गोद लेने आदि में लागू होगा। इसका मतलब यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम (1937) जैसे धर्म पर आधारित मौजूदा व्यक्तिगत कानून तकनीकी रूप से भंग हो जाएंगे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के मुताबिक, ‘राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।’ यानी संविधान सरकार को सभी समुदायों को उन मामलों पर एक साथ लाने का निर्देश दे रहा है, जो वर्तमान में उनके संबंधित व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित हैं। हालांकि, यह राज्य की नीति का एक निर्देशक सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कि यह लागू करने योग्य नहीं है।
समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई, जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर जोर दिया गया था। यह भी सिफारिश की गई थी हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण के बाहर रखा जाए।
समिति ने 1937 के अधिनियम की समीक्षा की और हिंदुओं के लिए विवाह और उत्तराधिकार के नागरिक संहिता की मांग की। राव समिति की रिपोर्ट का प्रारूप बीआर आंबेडकर की अध्यक्षता वाली एक चयन समिति को प्रस्तुत किया था। 1952 में हिंदू कोड बिल को दोबारा पेश किया गया। बिल को साल 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में अपनाया गया।
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