परिसीमन, जो जनसंख्या में हुए बदलावों के आधार पर संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनर्निर्धारित करने की प्रक्रिया है, भारत में एक विवादास्पद मुद्दा बन गया है। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा यह आश्वासन दिए जाने के बावजूद कि दक्षिणी राज्यों की संसदीय सीटों में कोई कमी नहीं होगी, विशेष रूप से तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसे लेकर चिंताएँ फिर से उठी हैं। यह लेख परिसीमन से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और उन कारणों की पड़ताल करता है जिनके कारण दक्षिणी राज्य आगामी परिसीमन प्रक्रिया को लेकर आशंकित हैं।
परिसीमन को समझना
परिभाषा
परिसीमन एक प्रक्रिया है जिसमें जनसंख्या में हुए परिवर्तनों के आधार पर संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया जाता है। यह निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है और लोकतांत्रिक सिद्धांत “एक नागरिक, एक वोट, एक मूल्य” को बनाए रखता है।
उद्देश्य
- जनसंख्या में बदलाव के अनुसार समान प्रतिनिधित्व बनाए रखना।
- विभिन्न राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या में समायोजन करना।
- अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षण निर्धारित करना।
संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 82 – प्रत्येक जनगणना के बाद संसद एक परिसीमन अधिनियम पारित करती है, जिसके तहत निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनः परिभाषित किया जाता है।
अनुच्छेद 170 – प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम के अनुसार राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या को समायोजित किया जाता है।
परिसीमन कौन करता है?
परिसीमन आयोग
- यह एक स्वतंत्र निकाय होता है, जिसे संसद के एक अधिनियम द्वारा गठित किया जाता है।
- इसके निर्णयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
संरचना
- अध्यक्ष: सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश।
- सदस्य:
- मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) या उनके द्वारा नियुक्त एक आयुक्त।
- संबंधित राज्यों के राज्य चुनाव आयुक्त।
भारत निर्वाचन आयोग की भूमिका
- तकनीकी सहायता प्रदान करता है।
- सुप्रीम कोर्ट (2024 के फैसले) के अनुसार, यदि परिसीमन आदेश संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करते हैं, तो उनकी समीक्षा की जा सकती है।
भारत में परिसीमन का इतिहास
परिसीमन अभ्यास
1952, 1962, 1972 और 2002 में परिसीमन आयोग अधिनियमों के तहत परिसीमन किया गया।
42वां संविधान संशोधन अधिनियम (1976)
- लोकसभा सीटों के आवंटन और क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के विभाजन को 1971 की जनगणना के आधार पर स्थगित कर दिया गया।
- जनसंख्या नियंत्रण में सफल राज्यों के हितों की रक्षा के लिए यह कदम उठाया गया।
84वां संविधान संशोधन अधिनियम (2001)
- 1991 की जनगणना के आधार पर क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्संयोजन किया गया।
- राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं किया गया।
87वां संविधान संशोधन अधिनियम (2003)
- परिसीमन का आधार 1991 की जनगणना से बदलकर 2001 की जनगणना कर दिया गया।
- सीटों की संख्या में बदलाव नहीं हुआ, लेकिन इसे अधिक सटीक डेटा पर आधारित किया गया।
परिसीमन की पुनरावृत्ति क्यों हो रही है?
- अगला परिसीमन संभवतः 2021 की जनगणना (जो COVID-19 के कारण विलंबित हुई) के आधार पर होगा।
- पहले हुए परिसीमन (1951, 1961, 1971, 2002) को जनसंख्या वृद्धि के अनुरूप किया गया था।
संभावित प्रभाव
- लोकसभा सीटों की संख्या 543 से बढ़कर 753 हो सकती है, यदि प्रति क्षेत्र 20 लाख की जनसंख्या के अनुपात को आधार बनाया जाए।
दक्षिणी राज्यों की चिंता क्यों?
जनसंख्या वृद्धि असमानता
- उत्तर भारतीय राज्य (उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश) में उच्च जनसंख्या वृद्धि देखी गई है, जिससे उन्हें अधिक सीटें मिल सकती हैं।
- दक्षिणी राज्य (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना) और पश्चिमी राज्य जनसंख्या नियंत्रण उपायों में सफल रहे हैं, जिससे उनकी संसदीय प्रतिनिधित्व संख्या में गिरावट आ सकती है।
शासन बनाम प्रतिनिधित्व
- दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि बेहतर शासन और जनसंख्या नियंत्रण प्रयासों का परिणाम संसदीय प्रतिनिधित्व में कमी नहीं होना चाहिए।
- उन्हें डर है कि राजनीतिक प्रभाव असमान रूप से अधिक जनसंख्या वाले उत्तर भारतीय राज्यों की ओर स्थानांतरित हो सकता है।
आगे क्या होगा?
- लोकसभा सीटों की कुल संख्या में वृद्धि की संभावना।
- किसी राज्य की सीटें कम करने के बजाय, बढ़ती जनसंख्या असमानता को समायोजित करने के लिए कुल सीटें बढ़ाई जा सकती हैं।
- 2026 समीक्षा – अगला परिसीमन 2026 के बाद पहली जनगणना (संभावित रूप से 2031) के आधार पर ही हो सकता है।
- महिला आरक्षण अधिनियम का प्रभाव – लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण परिसीमन प्रक्रिया को भी प्रभावित कर सकता है।
सारांश/स्थिर जानकारी | विवरण |
क्यों चर्चा में? | परिसीमन विवाद: परिसीमन से जुड़े मुद्दे को समझें |
परिसीमन क्या है? | जनसंख्या में हुए बदलावों के आधार पर संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनर्निर्धारित करने की प्रक्रिया |
उद्देश्य | निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना, सीटों का समायोजन करना, अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) के लिए आरक्षण निर्धारित करना |
प्रमुख संवैधानिक प्रावधान | अनुच्छेद 82 (संसद परिसीमन अधिनियम पारित करती है), अनुच्छेद 170 (जनगणना के बाद राज्य विधानसभा सीटों का समायोजन) |
कौन परिसीमन करता है? | परिसीमन आयोग (स्वतंत्र निकाय), भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा सहायता प्राप्त |
परिसीमन का ऐतिहासिक संदर्भ | 1952, 1962, 1972 और 2002 में परिसीमन किया गया |
प्रमुख संशोधन | 42वां संशोधन (1976) – 1971 की जनगणना के आधार पर सीट आवंटन को स्थगित किया गया। 84वां संशोधन (2001) – सीमाओं को समायोजित किया, लेकिन सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं। 87वां संशोधन (2003) – परिसीमन के लिए 2001 की जनगणना को आधार बनाया गया। |
वर्तमान चिंताएँ | – उत्तर भारतीय राज्यों में अधिक जनसंख्या वृद्धि के कारण उन्हें अतिरिक्त सीटें मिल सकती हैं। – दक्षिणी राज्यों का प्रतिनिधित्व घट सकता है, भले ही उन्होंने बेहतर शासन और जनसंख्या नियंत्रण किया हो। |
भविष्य की संभावनाएँ | – परिसीमन 2021 की जनगणना के आधार पर किया जा सकता है। – लोकसभा सीटों की संख्या 543 से बढ़कर 753 हो सकती है। – अगली समीक्षा केवल 2031 की जनगणना के बाद संभव होगी। |