जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन
जयप्रकाश नारायण, एक सम्मानित गांधीवादी और भारत छोड़ो आंदोलन के नायक, गांधी-विरोधी आंदोलन के नैतिक नेता के रूप में उभरे। उन्होंने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान सबसे पहले 5 जून 1974 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से किया, जिसने विपक्ष को नई ऊर्जा दी और बिहार को लगभग ठप कर दिया।
उनकी रणनीति महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम के तरीकों से मेल खाती थी। उन्होंने पूरे देश का दौरा करते हुए जनता के असंतोष को इंदिरा गांधी सरकार के विरुद्ध संगठित किया। उनका नारा “सिंहासन खाली करो, जनता आती है” विपक्षी आंदोलन का प्रतीक बन गया।
जेपी आंदोलन ने 1974 से 1975 की शुरुआत तक तीव्र गति पकड़ी और पूरे देश में फैल गया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उसने विविध सामाजिक समूहों को एक साथ लाकर कांग्रेस के प्रभुत्व को सीधी चुनौती दी।
रेलवे हड़ताल और श्रमिक असंतोष
सरकार की परेशानियों को और बढ़ाते हुए, समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने मई 1974 में भारतीय रेलवे की ऐतिहासिक हड़ताल का नेतृत्व किया, जिससे तीन सप्ताह तक रेलवे सेवा पूरी तरह ठप रही। यह हड़ताल यह दिखाने में सफल रही कि विपक्ष संगठित प्रयासों के माध्यम से देश की आवश्यक सेवाओं को बाधित कर सकता है और सरकार की कमजोरियों को उजागर कर सकता है।
इस हड़ताल की सफलता ने अन्य प्रतिरोध आंदोलनों को भी प्रेरित किया और यह सिद्ध कर दिया कि अगर संगठनबद्ध तरीके से विरोध किया जाए, तो सरकार को प्रभावी ढंग से चुनौती दी जा सकती है। इसने यह भी दिखाया कि संगठित श्रमिक आंदोलन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और परिवहन प्रणाली पर कितना गहरा प्रभाव डाल सकते हैं।
न्यायिक फैसला और संवैधानिक संकट
आपातकाल लागू होने की तत्काल वजह 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला था। न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया और रायबरेली से उनका लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया। यह निर्णय इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री पद की वैधता पर प्रश्नचिह्न बन गया और एक संविधानिक संकट खड़ा हो गया।
जैसे-जैसे उनके इस्तीफे की मांग तेज़ हुई, इंदिरा गांधी को सत्ता खोने का भय सताने लगा। इस न्यायिक फैसले ने उनके विरोधियों को एक शक्तिशाली हथियार दे दिया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए जबरदस्त दबाव में ला दिया।
25 जून 1975 की रात
फैसला स्वीकारने की बजाय इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पूरी तरह नकारने का निर्णय लिया। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून की रात आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद की सरकारी कार्रवाइयों से इस कदम की पूर्व योजना का संकेत मिला।
अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई ताकि खबरें छप न सकें, और अगले दिन सुबह 8 बजे इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा की। यह सब दर्शाता है कि सरकार पहले से ही सूचना नियंत्रण और दमनकारी शासन के लिए पूरी तरह तैयार थी।
संविधान का हनन और संघीय ढांचे का क्षरण
आपातकाल की 21 माह की अवधि (मार्च 1977 तक) में भारतीय संविधान और संघीय ढांचे की व्यवस्थित अवहेलना की गई। सरकार ने संविधान के विशेष प्रावधानों का उपयोग करते हुए कार्यपालिका और विधायिका के माध्यम से अभूतपूर्व केंद्रीकरण किया।
राज्य सरकारों को भंग किए बिना उन्हें पूरी तरह केंद्र के अधीन कर दिया गया। संसद ने राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाए, और राष्ट्रपति ने संसद की सहमति से वित्तीय अधिकारों में भी बदलाव किए, जिससे संघीय ढांचा पूरी तरह कमजोर हो गया।
राजनीतिक गिरफ्तारी और दमन
करीब 1.12 लाख लोग गिरफ्तार किए गए, जिनमें जेपी (जयप्रकाश नारायण) सहित प्रमुख विपक्षी नेता भी शामिल थे। इन्हें MISA, COFEPOSA, डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट जैसे कठोर कानूनों के तहत बिना मुकदमे जेल में डाल दिया गया। इससे भय का वातावरण बना और किसी भी प्रकार की सार्वजनिक आलोचना या विरोध को कुचल दिया गया।
संवैधानिक संशोधन और न्यायपालिका का निष्क्रियकरण
विपक्ष की गैरमौजूदगी में संसद ने कई संवैधानिक संशोधन पारित किए, जिनमें 1976 का 42वां संशोधन सबसे खतरनाक सिद्ध हुआ।
इस संशोधन ने चुनाव याचिकाओं की सुनवाई से न्यायपालिका को वंचित कर दिया, संसद को असीमित अधिकार दिए और संविधान में संशोधन करने के लिए संसद की शक्ति को न्यायिक समीक्षा से परे कर दिया। इससे लोकतंत्र का संतुलन और शक्ति-विभाजन पूरी तरह ध्वस्त हो गया।
प्रेस सेंसरशिप और मीडिया का दमन
अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया। अखबारों पर पूर्व-सेंसरशिप लगाई गई। 250 से अधिक पत्रकार, जैसे कि कुलदीप नैयर, को जेल में डाला गया।
हालांकि अधिकांश मीडिया झुक गया, लेकिन ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे कुछ प्रकाशनों ने साहस दिखाया। रामनाथ गोयनका ने सेंसरशिप का विरोध करते हुए कहा:
“अगर हम ऐसे ही छापते रहे, तो द इंडियन एक्सप्रेस एक कागज़ तो रहेगा, पर अखबार नहीं।”
संजय गांधी का अधिनायकवादी कार्यक्रम
इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने पांच सूत्रीय कार्यक्रम शुरू किया, जिसमें परिवार नियोजन और झुग्गी-झोपड़ी हटाना शामिल था।
अप्रैल 1976 में, दिल्ली के तुर्कमान गेट पर झुग्गियां हटाने के दौरान पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की।
जबरन नसबंदी कार्यक्रम इतना क्रूर था कि लाइसेंस, वेतन, यहां तक कि सामान्य नागरिक स्वतंत्रता भी नसबंदी प्रमाणपत्र से जोड़ी गई।
18 अक्टूबर 1976 को मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में पुलिस ने जबरन नसबंदी का विरोध कर रहे लोगों पर गोली चलाई, जिसमें कम से कम 50 लोग मारे गए।
चुनावी प्रक्रिया का हेरफेर
1976 में लोकसभा चुनाव होने थे, लेकिन संसद का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया गया, ताकि सत्ता में बने रहने की गारंटी मिल सके। यह कदम जनता के मत को टालने की कोशिश थी।
अप्रत्याशित अंत और चुनावी पराजय
बिना किसी स्पष्ट कारण के, इंदिरा गांधी ने जनवरी 1977 में आपातकाल हटाने और चुनाव कराने का निर्णय लिया। कुछ का मानना था कि वे जीत को लेकर आश्वस्त थीं — लेकिन यह भारी भूल साबित हुई।
1977 के आम चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी। मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
संवैधानिक सुधार और सुरक्षा उपाय
जनता सरकार ने आपातकाल में किए गए अधिकांश संशोधन रद्द किए। उन्होंने संविधान में आपातकाल की प्रक्रिया को और कठिन बनाया।
आपातकाल की घोषणा अब केवल “सशस्त्र विद्रोह” (armed rebellion) की स्थिति में की जा सकती थी (पूर्व में “आंतरिक अव्यवस्था” भी कारण था)। साथ ही, संसद के विशेष बहुमत से मंजूरी अनिवार्य कर दी गई।
दीर्घकालिक राजनीतिक प्रभाव
इस काल के बाद जना-संघ, समाजवादी, किसान वर्ग, पिछड़े वर्गों की साझेदारी शुरू हुई। इससे भारतीय राजनीति में सामाजिक समीकरण पूरी तरह बदल गए।
मंडल आयोग का गठन इसी सरकार में हुआ, जिसने उत्तर भारत में OBC उभार की नींव रखी।
इस दौर में कई युवा नेता उभरे, जैसे लालू प्रसाद यादव, जॉर्ज फर्नांडिस, अरुण जेटली, रामविलास पासवान, जिन्होंने आने वाले दशकों तक भारतीय राजनीति को प्रभावित किया।
स्थायी विरासत
आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र की नाजुकता और मजबूती — दोनों को उजागर किया।
जहां यह दिखा कि लोकतांत्रिक संस्थाएं आसानी से कुचली जा सकती हैं, वहीं यह भी सिद्ध हुआ कि जनता की ताकत, संविधान की आत्मा, और अंततः लोकतंत्र का पुनर्स्थापन संभव है।
इसी दौर ने कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व को समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू की, जो 2014 में उसकी ऐतिहासिक पराजय में जाकर समाप्त हुई।