ज्योतिराव फुले जयंती भारत में हर साल 11 अप्रैल को मनाई जाने वाली एक वार्षिक उत्सव है जो ज्योतिराव फुले के जन्म जयंती को याद करने के लिए मनाया जाता है। ज्योतिराव फुले एक प्रख्यात सामाजिक सुधारक, दार्शनिक और लेखक थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में महिलाओं की शिक्षा और दलितों के सम्मान के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र में जन्म लिया था और उनके भारतीय समाज और संस्कृति में योगदान को इस दिन के अवसर पर मनाया जाता है। ज्योतिराव फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी, जो महिलाओं और निम्न वर्गों की शिक्षा का प्रचार करता था और भारत में मौजूद जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ाता था। ज्योतिराव फुले जयंती पर भारत भर में उनके जीवन और उपलब्धियों को समर्पित करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और आयोजन किए जाते हैं, जिनमें संगोष्ठियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम और उनके जीवन और विरासत पर भाषण शामिल होते हैं।
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ज्योतिराव गोविंदराव फुले 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सातारा में जन्मे थे और इस साल उनकी 196वीं जयंती है। वे एक समाज सुधारक, जातिवाद विरोधी कार्यकर्ता, विचारक और लेखक थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी को दलितों और अपने जाति के अंतर्गत दबे लोगों की शिक्षा और उनके समरसता के लिए समर्पित किया था। उन्होंने मराठी शब्द ‘दलित’ का उपयोग अपनी लेखनी में शुरू किया था, जिससे उस समय समाज द्वारा अत्याचारित अस्पृश्यों और निर्वंशी लोगों को संदर्भित किया गया था। ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था, जो भारत में महिला शिक्षा के प्रति एक क्रांतिकारी कदम था। उन्होंने उस समय के जल संकट को दूर करने के लिए एक महत्वपूर्ण अभियान भी शुरू किया था।
सत्यशोधक समाज महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा 1873 में स्थापित एक सामाजिक सुधार आंदोलन है। इस आंदोलन का नाम “सत्य की तलाश करने वालों का समाज” से अनुवादित होता है। सत्यशोधक समाज का उद्देश्य भारतीय समाज में मौजूद जातिवाद और अन्य अत्याचारपूर्ण सामाजिक अभ्यासों से लड़ना था। इस आंदोलन का उद्देश्य महिलाओं और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षा और समान अधिकारों को बढ़ावा देना भी था। समाज ने तर्कशक्ति और विवेकपूर्ण सोच की आवश्यकता पर जोर दिया, वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों के प्राधिकार को खारिज करते हुए। ज्योतिराव फुले और उनके अनुयायियों का मानना था कि सामाजिक सुधार केवल शिक्षा, जागरूकता और जन आंदोलन के माध्यम से हो सकता है। सत्यशोधक समाज का समाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी और इसने देश में बहुत से अन्य सुधार आंदोलनों को प्रेरित किया।
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